मां
जैसे बिन कहे शब्दों का कोई खज़ाना ,
जैसे आंखों से दिल का हाल समझ लेने का कोई बहाना,
जब कभी सोचती हूं बचपन अपना, हमेशा वो नज़र आती है चट्टान सी ,
कभी निर्भय , अटल, अविचल और तो कभी कोमल , बेबस , लाचार सी ,
सोचती थी मां ऐसी क्यों है ?
मेरे लिए सुकून की एक पोटली और दुनिया के लिए एक एक पहेली
लेकिन अब जैसे सब समझ आता है , खुद को आईने में देख कर अपना बचपन नज़र आता है
मां बिन कहे कितना कुछ कर जाती है
कभी खुद से लड़ कर , कभी समाज से , कभी अपनो से
अपने चेहरे के हर शिकन को मुस्कुराहट में छुपाए ,
आज जब देखती हूं उसे , तो लगता है जैसे कितना कुछ समझना सीखना बाकी है ,
लेकिन आज भी वो मुस्कुरा के केह देती है , हम है न सब देख लेंगे।
काश ये शक्ति मुझ में भी होती ,
तो ये दुनिया और खूबसुरत लगती ।